Ghasi Singh "हो" वीर घासी सिंह

 "हो" वीर घासी सिंह 

राजधानी में गणतंत्र दिवस पर चमकीले वस्त्र पहन कर जब राजपथ पर देश के विभिन्न भागों से आए वनवासियों की नाचती गाती टोलियाँ जनता के सामने से निकलती हैं तब क्या हमने इस बात की कल्पना भी की है कि इनमें उन लोगों की सन्तान भी हैं जिन्होंने सन् 1857 ई0 के स्वतंत्रता संग्राम से पहले ही इस भूमि पर अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे। स्वतंत्रता के इन्हीं प्रथम आराधकों में है सिंहभूमि की ' हो' जनजाति ।


अंग्रेजों के साथ इस जनजाति का पहला सम्पर्क सन् 1760 में हुआ जब मीर कासिम ने बंगाल की गद्दी मिलने के बदले मेदिनीपुर का इलाका ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दे दिया था। उन दिनों छोटानागपुर मेदिनीपुर का अंग था। इस भाग को अपने अधिकार में लेने की इच्छा मेदिनीपुर के अंग्रेज रेजीडेंट की हुई और उसने फर्ग्युसन के नेतृत्व में फौज की टुकड़ी रवाना कर दी। सन् 1813 तक सिंहभूम जिले को छोड़कर सारा छोटानागपुर अंग्रेजों के अधीन हो चुका था ।

आक्रमण

हालांकि यहाँ के राजा ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी को पहले ही आत्मसमर्पण कर दिया था। लेकिन ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने सन् 1818 में सिहंभूम को पूरी तरह अपने अधिकार में लेने की ठान ली। उस समय मराठा शासक की सीमा में उड़ीसा भी शामिल था। इसका कारण सम्बलपुर से बंगाल तक सीधा सम्पर्क स्थापित करना और कटक को वाराणसी से, जो उस समय अंग्रेज साम्राज्य की पश्चिमी सीमा थी, जोड़ना था। जैसा कि कम कह चुके हैं सिहंभूम का राजा अंग्रेज सरकार के अधीन स्वेच्छा से स्वार्थ-सिद्धि के लिए आ गया था, • लेकिन खरसावां के ठाकुर चेतन सिंह और सरायकेला के कुंवर विक्रम सिंह बिलकुल भी तैयार नहीं थे। ये सभी आपस में एक-दूसरे के सम्बन्धी थे। सिंहभूम के राजा ने अंग्रेजों के साथ फरवरी, 1820 को एक समझौता किया। चूँकि सिंहभूम का राजा इस जनजाति के लोगों को, जो पिछले पचास वर्षो से भी अधिक समय से स्वतंत्र चले आ रहे थे स्वतंत्र नहीं देख सकता था। इसलिए अंग्रेजों को इस जनजाति के लोगों पर आक्रमण करने का एक बहाना मिल गया। अंग्रेजों ने पोड़ाहाट के राजा और अन्य स्थानीय राजाओं से मिलकर इसजनजाति पर आक्रमण कर दिया और यह दोष लगाया कि यह जनजाति लूटमार व हत्याएँ करने वाली जनजाति है। इस जनजाति को अपने अधीन करने का एक और कारण जैक्सन रोड का निर्माण करना था जो बंगाल को मद्रास से जोड़ती है। इधर इस जनजाति के लोगों को किसी भी अन्य व्यक्ति का अपनी सीमा में प्रवेश सहन नहीं था। इस आक्रमण का नेतृत्व मेजर रफसेज ने किया था। मेजर रफसेज और उसकी सेनाओं के प्रवेश का उद्देश्य वहाँ की जनजातियों का राजा के प्रति आत्मसमर्पण करवाना बताया गया। ये अंग्रेजी सेनाएं जब चाईबासा पहुँची तब इन लोगों का विद्रोह भड़क उठा। इस दौरान ये लोग बांध को नष्ट कर चुके थे, जिससे पीने के लिए पानी मिलना कठिन हो गया। मेजर रफसेज की सेनाओं को इन जनजातियों ने घेर लिया और अपने क्षेत्र से भगा दिया था। मेजर रफसेज की सहायता के लिए लेफ्टीनेंट मेलर्ड को आक्रमण करने का आदेश मिला लेकिन इस वीर ' हो ' जनजाति ने उसे और उसकी सेनाओं को रास्ते में ही रोक लिया। दोनों ओर के काफी लोग हताहत हुए। इस जनजाति शस्त्र, तीर और कुल्हाड़ी थे और कम्पनी सरकार की सेना तो पूरी तरह शस्त्रों से सज्जित थी। जब 'हो' लोग पहाड़ियों में छिप गए, तब अंग्रेजी सेनाओं ने गांव के गांव जलाकर नष्ट कर दिया। लेफ्टीनेंट मेलर्ड को पता लगा कि 'हो ' लोग कुटियालोर में एकत्र होकर आक्रमण की तैयारी कर रहे हैं और अंग्रेजों का डटकर मुकाबला करेंगे। अंग्रेजों को गुमला, अदेजानदिया, जयन्तगढ़ वंशवीर आदि स्थानों को अपने अधिकार में लेने के लिए कुछ कम क्षति नहीं उठानी पड़ी। 6 अप्रैल, 1820को गुमदिया क्षेत्र में 'हो' वनवासियों द्वारा आक्रमण किए जाने पर मेजर रफसेज को अपनी जान बचानी मुश्किल हो गयी और जैसा कि होता आया है बाबू अजेबर सिंह की सहायता मिलने पर मेजर रफसेज सिहंभूम से भाग खड़ा हुआ। बरनदिया के बाहर के गांव उनकी आँखों में शूल की तरह चुभ रहे थे ।

बलिदान

फसल कटने का मौसम आ चुका था । 'हो' लोगों ने अपने लोगों को संगठित किया। इस बार गुमलापीड़ के 'हो' वीरों ने नेतृत्व किया जो घासी सिंह के पूर्वजों से सम्बन्धित थे। अंग्रेजों के प्रतिनिधि और बरकानदीप के सूबेदार ने घासी सिंह को कैद कर लिया। इधर एक और घटना यह हुई कि इस सूबेदार के साथियों ने इस क्षेत्र के मुखिया कोडो पेटर की लड़की के साथ दुर्व्यवहार किया। 'हो' वनवासी अंग्रेजों को अपने क्षेत्र से हटाने पर पूरी तरह तुले हुए थे। ये लोग पुरुलिया में 31 जनवरी, 1821 को एकत्र हुए और इन्होंने उक्त सूबेदार पर हमला बोल दिया। सूबेदार भाग निकला, कहते हैं कि इस लड़ाई में सूबेदार सहित 15 लोगों को अपनी जान गँवानी पड़ी। पोरहाट के राजा के दो मंत्री और बीस घोड़े कत्ल कर दिए। इसके बाद ' हो' वीरों ने 6 फरवरी, 1821 को सिनेपुर किले पर धावा बोल दिया और सभी सड़कों व घाटों की नाकाबन्दी कर दी जिससे कि मेजर रफसेज की कोई कुमुक न आ सके।
यहाँ अंग्रेज सरकार द्वारा नियुक्त जमादार रतन सिंह ने निपुर का किला, जो उसे अंग्रेजों द्वारा दान में मिला था, 'हो' वीरों को सौप दिया। इस हार को मेजर रफसेज ने 'हो' जनजाति की एक भारी जीत स्वीकार किया है। कहते हैं कि सन् 1821 में अंग्रेजों ने 'हो' वीरों के साथ सन्धि की। इस सन्धि को 'हो' भाषा में अनुवाद कराया गया। सन्धि में यह भी शर्त रखी गयी की इस क्षेत्र में अन्य जातियों के लोग भी बस सकेंगे और 'हो' वनवासी अपने बच्चों को उड़िया और हिन्दी पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करेंगे। परन्तु इस सन्धि के बाद अंग्रेजों ने अपनी शक्ति पुनः संजोकर 'हो' वनवासियों को फिर से तंग करना शुरू कर दिया और यह सन्धि अधिक काल तक नहीं रह सकी।

जयन्तगढ़ पर धावा

फरवरी 1830 में एक बार फिर आजादी की चिनगारी भड़की और इस जनजाति के प्रायः 1200 वीरों ने जयन्तगढ़ पर हमला बोल दिया। पर पहले ही सूचना पाकर जयन्तगढ़ कम्पनी से नियुक्त शासक (एजेंट) रघुनाथ बस्सी भाग गया था। उसके आदमी वनवासियों का सामना नहीं कर सके और जयन्तगढ़, जो तब शोषण की गद्दी, अंग्रेजी शासन का प्रतीक बन गया था, पूरी तरह नष्ट कर दिया गया। इस आक्रमण में जयन्तगढ़ की पराजय से अंग्रेज तिलमिला गए परन्तु वे तुरन्त अपनी हार का बदला ले पाने में असमर्थ थे। इसलिए हालांकि रघुनाथ बस्सी को पुनः जयन्तगढ़ में उन्होंने अपना एजेंट नियुक्त किया किन्तु मुण्डाओं और मानकियों के साथ एक लिखित समझौता भी किया जिसके अनुसार बस्ती पर एक कड़ी पाबंदी लगा दी गयी थी कि वह वनवासियों से आठ आना प्रति खेत (जिसमें जुताई होती हो) से अधिक एक पैसा भी वसूल नहीं करेगा। लेकिन इसके बावजूद अंग्रेजों का शासन यानी विदेशी शासन तो रहा ही, जो वनवासियों को स्वीकार्य न था । इसलिए एक वर्ष बाद ही दूसरा संग्राम राँची जिले के एक परगना सोनपुर में 1 दिसम्बर, 1831 को शुरू हुआ जो छोटानागपुर से फैलता हुआ तत्कालीन अवध की सीमा तक जा पहुँच। इस विद्रोह का नेतृत्व भी 'हो' जनजातियों में से लरका कोल नामक वनवासियों ने किया था। यह संघर्ष इतिहास में कोल विद्रोह के नाम से विख्यात हुआ। तीर से निमंत्रण

इन लोगों में विद्रोह आरम्भ करने के पहले एक प्रथा तीर भेजने की थी। ये लोग अपने साथियों को तीर भेज कर आंदोलन में शामिल होने का निमंत्रण भेजते थे। जो लोग सहमत होते, वे तीर वैसा ही वापस लौटा देते थे और जो लोग शामिल नहीं होना चाहते थे वे तीर को तोड़कर वापस करते थे। अंग्रेजों के साथ इन वनवासियों ने 1 फरवरी, 1837 तक लोहा लिया। सिंहभूम के इन पृथ्वी पुत्रों ने अपनी आजादी की रक्षा के लिए अन्तिम सांस तक अपने छुद्र साधनों से युद्ध किया था।

( लेखक - डॉ. शिवतोष दास)

Comments

Popular posts from this blog

लुपुः कोपे कुल्गियाकिङ हो कहानी

Korang Kakla - कोरङ् ककला

Korang Kakla कोरङ् ककला 06 हो न्यूज़ पेपर