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जोनोम दोसतुर


1.घर के छत पर मारना(ओवः तमेतेयः):-

जैसे ही नवजात शिशु जन्म लेता है, तब परिवार का कोई भी सदस्य या वहाँ मौजूद कोई भी व्यक्ति डंडे से छत पे मारता है। ताकि आवाज हो। मन्यता है कि ऐसा करने से भविष्य में कभी भी बच्चा किसी भी तरह के आवाज से डरेगा नहीं। हर तरह के डर का वह सामना कर पाएगा।

2.बच्चे की नाभि काटना (बुटि लइः हड)-

छत पर मारने की प्रक्रिया के बाद बच्चे को नाभि को काटकर गर्भाशय से अलग करने की प्रक्रिया शुरु हो जाती है।नाभि काटने के लिए किसी धारदार औजर या चाकू-छूरी को इस्तेमाल नहीं किया जाता है। बल्कि मकई या बांस की पतली लकड़ी का इस्तेमाल किया जाता है, क्योंकि ये सामान हो समुदाय के घरों में आसानी से उपलब्ध होते है और इनके इस्तेमाल से किसी भी तरह के दुष्परिणम नही होता । नाभि काटते समय यह ध्यान दिया जाता है कि ज्यादा छोटा नही काटना है अर्थात बच्चे की कोहुनी के बराबर में एक रस्सी से बाँध दिया जाता है उसके बाद मकईय बांस की पतली लकड़ी से काटा जाता है। यह काम वहाँ उपस्थित महिला या बच्चे के पिताजी भी कर सकते हैं।

3. गर्भाशय को तोपने की प्रक्रिया (तुका बागितिल तोपा)-

बच्चा होने के पश्चात गर्भाशय सूख जाता है। जो कि बच्चे की नाभि के साथ जुड़ा होता है। नाभि काटने की प्रक्रिया के पश्चात उस गर्भाशय को अच्छी तरह से पत्ते में लपेटकर, उसके उपर राख(तोरोएः) या धान का छिलका (हें) छिड़क कर घर के पीछे तोप दिया जाता है और उसके उपर थोड़ा भारी पत्थर रख दिया जाता है। ताकि कुत्ता, बिल्ली या किसी भी तरह का जानवर उसे खोदकर ना निकाल पाए।

4.पेड़ की टहनियों से बना हुआ घेरा ( जमड़ा गुयु)-

यदि बच्चा दिन में जन्म लेता है तो उसी दिन या रात में जन्म लेता है तो उसके अगले दिन बच्चे को नहलाया जाता है। इसके लिए बच्चे का पिता ही दो-तीन पेड़ की टहनियाँ लाकर घर के पीछे उसे घेरा बनाते हुए गाड़ देता है ताकि माँ भी उस आड़ में नही सके । माँ और बच्चे के शुदधीकरण के दिन इसे खोल दिया जाता है।

5. गर्भाशय के दौरान पाबन्दियाँ- गर्भ में बच्चा रहने पर माँ सूर्य या चन्द्र ग्रहण नहीं देखती है। उँचाई में उड़ने वाले पक्षियों के समूह को नही देख सकती है। छेद हुआ मटका, चूल्हा या चूहे के द्वारा दीवार में छेद को वह ठीक नहीं कर सकती । लम्बाई में जो भी चीज होती है जैसे रस्सी इन्हें वह लांघ नहीं सकती बल्कि उसके उपर पैर रखकर पार होना शुभ होता है। कुछ भी पकाते वक्त अपने कपड़े में नही पोछना है। इसी तरह पति भी किसी मुर्गा बकरी को नहीं काट सकता है।

बच्चे के जन्म के बाद भी माँ को कई तरह के एहतियत बरतने चाहिए ताकि माँ और बच्चा दोनों स्वस्थ रहे। जैसे की माँ अत्याधिक तैलिय, बासी और खट्टे चीजों को नही खाना चाहिए। वरना बच्चे के स्वास्थय पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। माँ को कुरथी दाल पीना चाहिए ताजा भोजन करना चाहिए। दो-तीन लहसुन की कलियाँ भी खानी चाहिए।

6.छठी (मरता चि हुड़िड ओड़ा)-

छठी की यह प्रक्रिया नौ दिन या फिर जब बच्चे की नाभि झड़ती है तब की जाती है। नाभि झड़ने पर जहाँ गर्भाशय को तोपा गया था वहीं उसे भी तोपा जाता है। उस दिन घरों की साफ-सफाई की जाती है। कपड़े धोए जाते है। बच्चे के बाल और नाखूनों को बच्चे का पिता ही हल्दी-तेल रखे हुए पत्ते के दोने में रखकर नदी या तालाब में ले जाता है, वहाँ पानी में डुबकी लगात हुए, जल देवी-देवताओ के नाम लेकर उन्हें बहा देता है। बच्चे के शरीर में भी ताजी हल्दी से लेप लगाया जाता है। माँ को भी नहलाया जाता है। इस दिन घर के पूर्वजों का नाम लेकर पूजा किया जाता है। उन्हें डियड. रासि (पूजा में इस्तेमाल होने वाला तरल पदार्थ) चढ़ाया जाता है।

इस छठी में यानि शुद्धीकरण में पति-पत्नी और बच्चा पूरी तरह से शुद्ध नही होते, पर बाकी लोगों से मिल-जुल सकते हैं, साधारण दिनों की तरह ही बाकी का काम कर सकते हैं, नदी तालाब में नहा भी सकते हैं, बाकी लोग भी माँ और बच्चे को छू सकते हैं। बच्चे को गोद भी ले सकते है। दूसरे शब्दों में करे तो कुछ बन्दिशे खत्म हो जाती है। पर के पूजा स्थल( आदिड.) में प्रवेश वर्जित होता है। 21 दिनों के बाद होने वाली छठी में ही पूरी तरह से पति-पत्नी और बच्चा शुद्ध हो जाता है और तमाम बन्दिशे भी खत्म हो जाती है।

  1. 21 दिनों में होने वाली छठी(तिकिएड़ा चि एकसिया)-

इस दिन पूरे घर की साफ-सफाई की जाती है। सारे कपड़ो को धोया जाता है। पूर्वजों को पूजा दोपहर तक में कर ली जाती है। माँ और बच्चे को भी नहलाया जाता है। इस दिन घर के पूजा स्थल (आदिंग) में मुर्गी की बली दी जाती है। पूजा के वक्त बच्चे को गोद में लेकर पूजा स्थल (आंदिग) ले जाया जाता है जिसे कोयोंग अदेर कहते है। घर के पूर्वजों से यह कहकर परिचय कराया जाता है कि ये अपका नाति या पोता है, इसे पहचान लिजिए, अब इसकी रक्षा करने की जिम्मेदारी आप लोगों की है। इस तरह कहकर दो-तीन बार अन्दर बाहर किया जाता है।

इसीदिन बच्चे के नहलाने के लिए पत्तों और टहनियों से बनाए हुए घेरे को माँ और पिताजी नहाने के पहले तोड़ते है। इस दिन भी बच्चे के बालो और नाखूनों को ठीक  उसी तरह  हल्दी तेल रखे हुए पत्ते के दोनो में रखकर नदी या तालाब में बहा दिया जाता है। इस तरह से सभी लोग पूरी तरह से शुद्ध हो जाते हैं। इस दिन सभी लोग खुशियाँ मनाते हैं। नाते-रिश्तेदार अड़ोस-पड़ोस सभी को बुलाया जाता है। सब मिल जुल कर खाते पीते हैं।

  1. नामकरण (नुतुम तुपु-नम)-

छठी के बाद अगले दिन बच्चे के नामकरण की प्रक्रिया की जाती है। सभी के उपस्थिति में ही कांसे के बर्तन मे हल्दी पानी रखकर, वहाँ उपस्थित बुजुर्ग, भगवान (देशाउली) का नाम लेकर उस बर्तन के पानी में चावल के दाने, उड़द दाल और घास( अदोवा चाउली जं, गोटा रम्बा ओन्डो  दुती तसड) को जिसके नाम के साथ नामकरण करना है उसका नाम लेकर डाला जाता है। यदि चावल के दाने और दाल एक दुसरे से सट जाते हैं तो उसी के नाम से बच्चे का नाम रखा जाता है। बच्चे के नामकरण मे पिताजी के परिवालों के नाम को ही पहली प्रथामिक दी जाती है जैसेः- दादा,ताउ, चाचा आदि। अगर चावल के दाने और दाल एक दुसरे से नही सटते और डूब जाते है तो बच्चे का नामकरण मामा घर के किसी सदस्य के नाम पर की जाती है।

इसतरह से नामकरण की प्रक्रिया पूरी की जाती है।

मान्यतानुसार हो समुदाय में इस तरह के नामकरण का चलने है, जो आदिकाल से चला आ रहा है। इस चलन के साथ रिति-रिवाज, परम्परा जुड़ा है। नाम के साथ जाति गोत्र भी जुड़ा होता है। इसे ही हो दोस्तुर कहते है।

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