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भाषा का महत्व

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 एक समय की बात है, एक छोटे से गाँव में एक बच्चा था जिसका नाम रिमिल था। रिमिल को अपनी मातृभाषा, हो भाषा, बोलने में बहुत गर्व महसूस होता था। लेकिन जब वह शहर के स्कूल में पढ़ने गया, तो उसे अन्य भाषाओं का भी ज्ञान होना जरूरी था। शहर के बच्चे उसकी भाषा का मजाक उड़ाते और उसे अलग-थलग महसूस कराते। रिमिल दुखी हो गया और उसने अपनी भाषा बोलना छोड़ दिया। लेकिन एक दिन, एक नए शिक्षक ने स्कूल में आकर बच्चों को विभिन्न भाषाओं की सुंदरता और महत्व समझाया। शिक्षक ने रिमिल को भी प्रोत्साहित किया और उसे अपनी भाषा में एक कविता सुनाने को कहा। रिमिल ने धीरे-धीरे अपनी भाषा में कविता सुनाई और सभी बच्चे मंत्रमुग्ध हो गए। उन्होंने रिमिल की भाषा की सराहना की और उससे हो भाषा सीखने की इच्छा जताई। इस घटना ने रिमिल को अपनी भाषा के प्रति फिर से गर्व महसूस कराया और उसने अपने साथियों को हो भाषा सिखाना शुरू किया। गाँव और शहर के बच्चे एक साथ मिलकर हो भाषा में गीत गाने लगे और उनकी दोस्ती गहरी हो गई। यह कहानी हमें यह सिखाती है कि हर भाषा की अपनी एक अनूठी सुंदरता होती है और हमें अपनी भाषा के प्रति गर्व महसूस करना चाहिए।

हँड़िया (डियङ)

  हँड़िया , जिसे कभी-कभी हड़िया भी कहा जाता है, हो भाषा में इसे डियङ कहा जाता है।यह एक प्रकार की पारंपरिक बीयर है जो मुख्यतः आदिवासी समुदाय में प्रचलित है। यह पेय विशेष रूप से झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में लोकप्रिय है। हँड़िया बनाने के लिए पके हुए चावल (भात) और रानू गोली की गोली (एक प्रकार का प्राकृतिक खमीर) का उपयोग किया जाता है। इस प्रक्रिया में चावल को खमीरित करने के बाद फर्मेंट किया जाता है, जिससे एक मादक पेय तैयार होता है जिसे सामाजिक समारोहों और त्योहारों पर परोसा जाता है। हँड़िया की विशेषता यह है कि यह एक स्वदेशी पेय है जो स्थानीय संस्कृति और परंपरा का हिस्सा है। दूसरा विशेषता गर्मी के मौसम में इसका सेवन करने से लू लगने की संभावना नही रहती है। इससे जोंडिस का रोग भी ठीक होता है। इसका सेवन अक्सर ग्रामीण इलाकों में जीवन के विभिन्न पहलुओं को मनाने के लिए किया जाता है। हँड़िया न केवल एक पेय है, बल्कि यह समुदाय के लोगों के बीच एकता और सामाजिक संबंधों को मजबूत करने का एक माध्यम भी है।